रेलवे का पहरा व निगरानी का प्रारंभ सन् 1882 से पहले से ही हो चुका था, जब उस समय मौजूद रेलवे की कंपनियों ने प्रत्येक विभाग के लिए अपने-अपने चौकीदारों की नियुक्ति की थी। यह व्यवस्था सन् 1918 तक काफी संतोषजनक पाई गई। जब यातायात में बढोतरी हुई तो वहन हेतु रेलवे को सौंपे गए मालों की चोरी के वारदातों में भारी वृद्धि हुई। इसके परिणामस्वरूप सरकार को इनके कारणों का पता लगाने एवं उपाय सुझाने के लिए एक समिति का गठन करना पड़ा।
समिति की सिफारिशों पर अमल करते हुए, श्रेणी I की अधिकतर रेलों ने अपने-अपने वाच एंड वार्ड को एक उच्च अधिकारी के अधीन एक अलग यूनिट के रूप में पुनर्गठित कर दिया। परंतु यह भी कारगर साबित नहीं हुआ और द्वितीय विश्वयुद्ध के मद्देनज़र उत्पन्न स्थिति में जब रेलवे को चोरी के कारण हुई हानियों और दावों के लिए भारी मात्रा में क्षतिपूर्ति करना पड़ा तो यह गभीर मामला बना गया और इस पर ध्यान देना जरूरी हो गया। यह स्थिति केवल रेलवे परिसर के लिए सीमित नहीं थी अपितु यह देश की आम अपराध स्थिति की एक भाग बन गया था। जिस उद्देश्य के लिए वाच एंड वार्ड यूनिटों का गठन किया गया था वे अब अनुपयोगी साबित हुए।